उपन्यास >> थोड़ी-सी जमीन थोड़ा आसमान थोड़ी-सी जमीन थोड़ा आसमानजयश्री राय
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समकालीन कथाकारों में अपने चुनौतीपूर्ण और गहरे संवेदनात्मक कथाविन्यास के लिए विशिष्ट स्थान रखनेवाली कथाकार जयश्री रॉय का नवीनतम उपन्यास थोड़ी-सी ज़मीन, थोड़ा आसमान मनुष्य से मनुष्य के सम्बन्ध को पूर्वाग्रहों से इतर जाकर समझने का एक ईमानदार प्रयास है, जो अपने लघु कलेवर की सीमाओं में महती उद्देश्य का साक्ष्य देता है।
पूरी दुनिया की तमाम समस्याओं के मूल में यह पूर्वाग्रह ही है जो जमीन-आसमान को लाखों खानों में बाँट रखा है, कहीं सरहद, कहीं दीवार तो कहीं कँटीले बाड़े खड़े कर रखा है। संवेदना, संरचना, मिट्टी से एक इन्सान सतही और ओढ़ी-सीखी हुई पोशाक, मजहब, भाषा के वैविध्य पर सदियों से सुकून, जान-ओ-माल हल्कान किये बैठा है। उसे ख़ुद से अलग कुछ भी नहीं चाहिए, उस दुनिया में जहाँ कुदरत ने एक हाथ की पाँच उँगलियाँ तक समान नहीं बनायीं ! उसकी यह नासमझ ज़िद्द तारीख़ के पहले सफ़े से दुनिया को खून, चीख़ और तकलीफ़ों के ना मिटने वाले छापों से गोद रखा है। इन्हीं की बदौलत कुदरत की बनाई यह बेहद खूबसूरत दुनिया आज इस कदर ज़र्द और बदरंग हो गयी है।
प्रस्तुत उपन्यास में सतह के इन्हीं दुनियावी अलगावों को परे हटा कर खाँटी मनुष्य और मनुष्यता के मूलभूत साम्य, संवेदना और क़ुदरती ऐक्य को चीन्हने और शिनाख़्त करने की एक ईमानदार कोशिश की गयी है। विश्व के कई देशों, महादेशों के मानचित्र के विशाल कैनवास पर फैली इस उपन्यास की कथावस्तु हमें बतलाती है, भिन्न-भिन्न जाति, धर्म, नस्ल में बँटा मनुष्य अपनी संवेदना और मिट्टी के स्तर पर वस्तुतः एक है। नसों में बहने वाला रक्त सबका लाल होता है, आँसू का खारापन भी एक-सा। सुख भले सबका अलग-अलग हो, दुःख का स्वाद एक-सा! हम एक बार सारे पूर्वाग्रहों को परे हटा कर खालिस मनुष्य और मनुष्यता को उसके वास्तविक स्वरूप में देखना सीख लें, फिर यहाँ कोई पराया नहीं रह जायेगा, और यह नज़र हमें प्रेम ही दे सकता है! पूर्वाग्रह, विद्वेष, घृणा और अखण्ड आस्था, प्रेम के बीच के अद्भुत द्वन्द्व की कहानी थोड़ी-सी ज़मीन, थोड़ा आसमान!
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